जीना सीख लिया हैं |
हाँ अब आती हैं हँसी अकेले मैं मुझको .
मैंने जीना सीख लिया हैं सब कुछ भुला के ,
अजब सा नशा हैं मंद मंद मुस्कुराने मैं,
लोग समझे पागल तो फिर भी क्या फर्क पड़ता हैं |
पल पल अब घुटा हुआ गुज़रता हैं ,
साँसों को जैसे क़ैद करा हो किसी पिंजरे मैं,
मैंने सीख लिया है दर्द छुपाना,
लोगो को बेवक़ूफ़ बनाता हूँ रोज़ झूटी हँसी दिखा कर.
मेरे चेहरे से मेरे दर्द का उनको पता नहीं चलता.
ऐसे ज़िंदा -दिल्ली से करता हूँ मैं नाटक रोज़ जीने का |
वो कहते हैं कितना हँसता हैं यह दिन भर ,
रात को सुर्ख आँखों का सबब तो कोई पूछ ले एक बार आकर,
बारिश के बरसने की ख़ुशी मिलती होगी लोगो को.
मुझे रास नही आती ,कितनी ही बड़ी हो ख़ुशी,
खोया सा डूबा सा रहता हूँ मैं अपने ही खयालो मैं
मैंने मुस्कान से सौदा बड़ा कर लिया हैं,
क्या बर्फ की चादर वैसे ही पड़ती हैं पहाड़ो पर ?
जैसे गम के बादल घिरते हैं मन की दीवारों पर ,
क्या होता हैं उजाला वैसे ही रोज़ सुबह कही ?
जैसे दुःख के सागर मैं निकली हो कश्ती नयी उम्मीद की कोई,
कोई होगा जो देगा एक दिन जवाब इन .सब सवालों का
आज सो जाते हैं नींद को झूटी तसल्ली देकर
हाँ अब रातों मैं ख्वाबों ने आना छोड़ दिया हैं
तारो ने हमसे मूह मूड लिया हैं
छोड़ दिया हैं उन्होंने मुझे प्यार करना
तो मैंने भी जीना सीख लिया हैं |
Abhinav
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